
"The historic Mughal Farman issued by Shah Alam II in 1773, written in Persian Shikasta script, preserved in the Telangana State Archives, promoting religious tolerance for Ganga River pilgrims."
शाह आलम II के 1773 के मुगल फरमान जो गंगा तीर्थयात्रियों की धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करता है। इसके ऐतिहासिक संदर्भ और आधुनिक प्रासंगिकता को समझें।
भारतीय इतिहास में मुगल साम्राज्य एक ऐसी शक्ति के रूप में जाना जाता है, जिसने सांस्कृतिक समन्वय और शासन की नींव रखी। इस युग का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है 1773 में सम्राट शाह आलम II द्वारा जारी किया गया मुगल फरमान, जो तेलंगाना राज्य अभिलेखागार में सुरक्षित है। फारसी शिकस्ता लिपि में लिखा यह फरमान मुगल प्रशासन की धार्मिक सहिष्णुता और सामुदायिक सद्भावना की नीति को दर्शाता है। यह संपादकीय इस फरमान के महत्व, इसकी शर्तों और आज के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डालता है, साथ ही इसके ऐतिहासिक संदर्भ को भी समझता है।
1773 के फरमान की मुख्य शर्तें
शाह आलम II, जो 1759 से 1806 तक मुगल सम्राट थे, ने इस फरमान के माध्यम से धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर एक प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाया। उस समय साम्राज्य कई राजनीतिक उथल-पुथल से गुजर रहा था, लेकिन यह फरमान चार महत्वपूर्ण निर्देश देता है:
- तीर्थयात्रियों से कर में छूट: इस फरमान में स्पष्ट रूप से कहा गया कि गंगा नदी में स्नान करने वाले भक्तों से किसी भी प्रकार का कर या शुल्क नहीं लिया जाएगा। यह हिंदू धार्मिक परंपराओं का सम्मान करता है।
- गंगा स्नान को धार्मिक अनुष्ठान की मान्यता: शाह आलम II ने गंगा में स्नान को एक वैध धार्मिक अनुष्ठान के रूप में मान्यता दी और इसे शाही संरक्षण प्रदान किया। यह हिंदू प्रथाओं के प्रति सम्मान का प्रतीक था।
- स्थानीय प्रशासन द्वारा सख्ती से लागू करना: इस फरमान में कोतवाली (स्थानीय पुलिस) को इन नियमों को सख्ती से लागू करने का आदेश दिया गया। साथ ही, उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का वादा किया गया।
- विविध समुदायों का उल्लेख: फरमान में गुजराती और मराठा समुदायों का विशेष रूप से उल्लेख है, जो इन तीर्थयात्राओं में भाग लेते थे। यह उस समय की विविधता और सहयोग को दर्शाता है।
फरमान का ऐतिहासिक संदर्भ
1773 तक मुगल साम्राज्य अपनी चरम शक्ति खो चुका था। शाह आलम II के शासनकाल में कई चुनौतियाँ थीं, जैसे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठों जैसे क्षेत्रीय शक्तियों का उदय। इसके अलावा, अफगान आक्रमणकारियों द्वारा उनकी आँखें फोड़ दी गई थीं, और उनकी वास्तविक सत्ता सीमित थी। फिर भी, इस फरमान का जारी होना सम्राट की धार्मिक सहिष्णुता और अपने प्रजा के कल्याण के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
गंगा नदी हिंदू धर्म में पवित्र मानी जाती है और इसका स्नान आध्यात्मिक शुद्धि का प्रतीक है। त्योहारों के दौरान देश भर से तीर्थयात्री इसके किनारे आते थे, जिनमें गुजराती और मराठा समुदाय भी शामिल थे। शाह आलम II ने उनकी सुरक्षा और अधिकारों को सुनिश्चित करके मुगल शासन की समावेशी परंपरा को जीवित रखा, जो सम्राट अकबर के समय से चली आ रही थी।

आज के संदर्भ में प्रासंगिकता
1773 का यह फरमान केवल एक ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं है; यह आज के लिए भी सबक देता है। आज के समय में, जब धार्मिक असहिष्णुता और सांप्रदायिक तनाव अक्सर सुर्खियों में रहते हैं, शाह आलम II का यह फरमान समावेशी शासन की शक्ति को याद दिलाता है। तीर्थयात्रियों को कर से छूट देना और उनके अनुष्ठानों की रक्षा करना यह दर्शाता है कि सांस्कृतिक सह-अस्तित्व कितना महत्वपूर्ण है—एक सिद्धांत जो आधुनिक भारत और विश्व के लिए आज भी प्रासंगिक है।
इसके अलावा, इस फरमान में कोतवाली की भूमिका धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा में महत्वपूर्ण थी। आज, जब विश्व भर की सरकारें धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक अधिकारों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रही हैं, यह फरमान एक ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत करता है कि कैसे एक शासक ने विविध समुदायों के कल्याण को प्राथमिकता दी।
इतिहास को संरक्षित करना
तेलंगाना राज्य अभिलेखागार में इस फरमान का संरक्षण ऐतिहासिक दस्तावेजों को सहेजने के महत्व को दर्शाता है। फारसी शिकस्ता लिपि में लिखा यह फरमान इतिहासकारों और शोधकर्ताओं के लिए एक मूल्यवान संसाधन है, जो मुगल प्रशासन, धार्मिक नीतियों और सुलेख कला का अध्ययन करते हैं। ऐसे दस्तावेजों को डिजिटाइज करने और अनुवाद करने की पहल जनता के लिए इन्हें अधिक सुलभ बना सकती है, जिससे भारत के बहुसांस्कृतिक अतीत की गहरी समझ विकसित होगी।
शाह आलम II का 1773 का मुगल फरमान धार्मिक सहिष्णुता और प्रशासनिक दूरदर्शिता का प्रतीक है। तीर्थयात्रियों के अधिकारों की रक्षा करके, उनके अनुष्ठानों की पवित्रता को मान्यता देकर और नियमों को लागू करके, सम्राट ने अपने कठिन शासनकाल में भी एक स्थायी विरासत छोड़ी। इस फरमान पर विचार करते समय हमें सहानुभूति, समावेशिता और विविधता के सम्मान की आवश्यकता याद आती है। एक ऐसी दुनिया में, जो अक्सर धर्म और विचारधारा से विभाजित होती है, 18वीं सदी का यह आदेश हमें प्रेरणा देता है कि हम ऐसे समाज का निर्माण करें, जहाँ हर व्यक्ति अपने विश्वास को स्वतंत्रता और बिना डर के अभ्यास कर सके।