
काबुल में भारत का नया क़दम: मान्यता बिना साझेदारी
अफ़ग़ान मिशन से दूतावास तक: भारत की रणनीतिक नीति का संकेत
📍नई दिल्ली 🗓️ 22 अक्तूबर 2025 ✍️ Asif Khan
भारत ने काबुल में अपने तकनीकी मिशन को पूर्ण दूतावास में बदलकर तालिबान शासन को औपचारिक मान्यता दिए बिना, अफ़ग़ानिस्तान से संबंध मज़बूत करने की दिशा में निर्णायक क़दम बढ़ाया है।
भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच रिश्ते हमेशा से इतिहास, तहज़ीब और रणनीति के संगम रहे हैं। यह रिश्ता सिर्फ़ कूटनीतिक नहीं बल्कि इंसानी जज़्बात और पारस्परिक भरोसे पर खड़ा रहा है। आज जब भारत ने काबुल में अपने तकनीकी मिशन को दूतावास के स्तर पर अपग्रेड किया है, तो यह एक सधा हुआ लेकिन साहसी क़दम है—ऐसा क़दम जो तालिबान को औपचारिक मान्यता दिए बिना भी संवाद का रास्ता खुला रखता है।
एक ऐतिहासिक संदर्भ
अगस्त 2021 में जब तालिबान ने सत्ता संभाली, तो भारत ने अपने राजनयिकों को काबुल से वापस बुला लिया था। उस वक़्त हालात नाज़ुक थे—महिलाओं की शिक्षा, मानवाधिकार, और आतंकवाद की वापसी को लेकर गहरी चिंता थी। मगर 2022 में तकनीकी मिशन की तैनाती ने यह साफ़ किया कि भारत संवाद के दरवाज़े बंद नहीं कर रहा। आज यह दूतावास की पुनर्स्थापना उसी नीति की निरंतरता है—“engage, but not endorse.”
राजनीतिक हिकमत-ए-अमली (Strategic Diplomacy)
भारत ने हमेशा अफ़ग़ानिस्तान को एक अहम साझेदार के रूप में देखा है। तालिबान शासन से सीधे मान्यता देने से बचते हुए भारत ने “talk without recognition” की पॉलिसी अपनाई—जो कूटनीति में एक दिलचस्प संतुलन है। इसका मक़सद है कि भारत क्षेत्रीय सुरक्षा में अपनी भूमिका निभाए, जबकि आतंकवादी गतिविधियों से दूरी बनाए रखे।
तालिबान विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्ताक़ी की भारत यात्रा इसका संकेत थी कि दोनों पक्ष संवाद के लिए तैयार हैं। मुत्ताक़ी ने भरोसा दिया कि अफ़ग़ान धरती का इस्तेमाल भारत के ख़िलाफ़ नहीं होने दिया जाएगा। मगर सवाल यह है—क्या सिर्फ़ वादे से भरोसा बहाल हो सकता है? इतिहास बताता है कि अफ़ग़ान सरज़मीन पर कई ताक़तें अपने एजेंडे के साथ सक्रिय रहती हैं—चाहे वो पाकिस्तान की गहराई रणनीति हो या चीन का उभरता निवेश।
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आर्थिक और विकासात्मक नज़रिया
भारत की नीति हमेशा “nation-building” पर केंद्रित रही है। सलमा डैम, जरंज-डेलाराम हाईवे, और अफ़ग़ान पार्लियामेंट बिल्डिंग—ये सब भारत की सॉफ्ट पावर की मिसाल हैं। इन प्रोजेक्ट्स ने अफ़ग़ान अवाम में भारत के लिए एक सम्मान और भरोसे की भावना पैदा की।
अब जब अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था युद्ध से थकी हुई है, भारत के लिए मानवीय सहायता और तकनीकी सहयोग के नए रास्ते खुल रहे हैं। अफ़ग़ान खनिज संसाधनों में निवेश, एयर फ्रेट कॉरिडोर और क्षेत्रीय व्यापार संपर्क की पहल भारत को मध्य एशिया तक एक नया गेटवे दे सकती है।
सामरिक आयाम (Strategic Layers)
भारत का मक़सद सिर्फ़ “presence” नहीं बल्कि “influence” है। काबुल में दूतावास की पुनर्स्थापना भारत को ज़मीनी इंटेलिजेंस, सांस्कृतिक कनेक्ट और मानवीय सहायता तीनों मोर्चों पर मज़बूत बनाती है। यह कदम पाकिस्तान की “स्ट्रेटेजिक डेप्थ” पॉलिसी के जवाब के रूप में देखा जा सकता है।
मगर जोखिम भी हैं—तालिबान के भीतर विभिन्न धड़े, इस्लामिक स्टेट ख़ुरासान (ISKP) जैसी चरमपंथी ताक़तें, और महिलाओं के अधिकारों पर जारी प्रतिबंध, भारत की नैतिक और राजनयिक स्थिति दोनों को चुनौती देते हैं।
एक वैकल्पिक दृष्टिकोण
कुछ विश्लेषक मानते हैं कि भारत को तालिबान के साथ सीमित संवाद से आगे बढ़ना चाहिए, ताकि चीन और पाकिस्तान के प्रभाव को संतुलित किया जा सके। वहीं दूसरे विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि जल्दबाज़ी में औपचारिक मान्यता देना भारत की लोकतांत्रिक छवि को नुकसान पहुँचा सकता है।
असल चुनौती यही है—क्या भारत “principled engagement” और “strategic pragmatism” दोनों को साथ लेकर चल सकता है?
जनसंपर्क और सॉफ्ट पावर का असर
अफ़ग़ान अवाम में भारत के प्रति भावनात्मक जुड़ाव गहरा है—बॉलीवुड फ़िल्में, क्रिकेट, और शिक्षा स्कॉलरशिप्स ने इसे और मजबूत किया है। ऐसे में यह क़दम केवल राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक पुनःसंपर्क का प्रतीक भी है।
भविष्य की दिशा
अगले कुछ साल भारत-अफ़ग़ान रिश्तों के लिए निर्णायक होंगे। भारत को संतुलन बनाना होगा—एक ओर मानवीय दायित्व, दूसरी ओर सुरक्षा और स्थिरता।
अगर भारत संवाद, सहायता और सुरक्षा तीनों को समान रूप से आगे बढ़ाता है, तो यह रिश्ता सिर्फ़ दो देशों का नहीं रहेगा—यह पूरे दक्षिण एशिया में स्थिरता का केंद्र बन सकता है।
निष्कर्ष
भारत और अफ़ग़ानिस्तान का रिश्ता किसी एक दौर का नहीं, बल्कि साझे इतिहास और उम्मीदों की एक सतत कहानी है। तालिबान शासन के साथ संवाद का यह नया अध्याय भले ही जोखिम भरा हो, लेकिन यही भारत की परिपक्व कूटनीति की पहचान है—जहाँ सिद्धांत और व्यावहारिकता का संगम होता है।






