
Key political figures of Bihar 2025 election campaign representing NDA and Mahagathbandhan, highlighting the evolving political scenario. – Shah Times
बिहार चुनाव की रणभूमि में महागठबंधन की आत्मघाती अराजकता
महागठबंधन की उलझनें और NDA की बढ़त
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में विपक्षी महागठबंधन की सीट बंटवारे की उलझनें और सहयोगी दलों की नाराज़गी ने उसकी एकजुटता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। वहीं NDA ने अपनी संगठनात्मक तैयारी से राजनीतिक रूप से बढ़त हासिल कर ली है। यह संपादकीय विश्लेषण बिहार की बदलती राजनीतिक ज़मीन और विपक्ष की आत्मघाती रणनीति पर एक गहराई से विचार प्रस्तुत करता है।
📍पटना |🗓️19 अक्टूबर 2025 | ✍️आसिफ़ ख़ान
बिहार की राजनीति हमेशा से भारत के लोकतंत्र का आईना रही है। यह राज्य सिर्फ़ चुनावों का मैदान नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना और राजनीतिक प्रयोगशाला रहा है। 2025 के विधानसभा चुनावों की आहट के साथ ही एक बार फिर यह साबित हो रहा है कि संगठन और समन्वय राजनीति के असली आधार हैं, केवल नारों से नहीं, व्यवस्था से चुनाव जीते जाते हैं।
महागठबंधन (MGB), जिसने खुद को “इंडिया ब्लॉक” का नैतिक केंद्र बताया था, इस बार अपने ही जाल में उलझा नज़र आ रहा है। NDA ने समय रहते उम्मीदवारों की सूची जारी कर अनुशासन का संदेश दिया, जबकि MGB अभी तक “कौन कहाँ से लड़ेगा” की गुत्थी सुलझा नहीं सका। यह देरी केवल तकनीकी नहीं — यह राजनीतिक विश्वास के संकट की निशानी है।
तालमेल की देरी और विश्वास की दरार
राजनीति में वक्त की अहमियत वही समझ सकता है, जिसने जनता के मूड को करीब से देखा हो। बिहार में चुनाव का मौसम सिर्फ़ तारीख़ों का खेल नहीं होता, यह जनभावनाओं का दौर होता है। ऐसे में जब गठबंधन के बड़े दल सीटों पर सहमति नहीं बना पाते, तो यह जनता को गलत संदेश देता है — “अगर ये खुद एकमत नहीं, तो राज्य कैसे संभालेंगे?”
महागठबंधन की देरी अब उसकी विश्वसनीयता पर सवाल बन चुकी है। कांग्रेस और RJD का कुछ सीटों पर आमने-सामने आना सिर्फ़ प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि ‘भरोसे के टूटने’ की निशानी है। इस स्थिति में जनता NDA की अनुशासित और रणनीतिक छवि की तरफ़ झुकना स्वाभाविक है।
राजनीति में perception ही reality बन जाता है — और इस मोर्चे पर महागठबंधन पिछड़ चुका है।
कांग्रेस बनाम RJD – “क्वालिटी सीटों” की लड़ाई
गठबंधन की असली जंग सीटों की संख्या नहीं बल्कि “क्वालिटी” की रही है। कांग्रेस ऐसी सीटें चाहती है जहाँ उसकी ज़मीन हो, जबकि RJD अपने पारंपरिक प्रभाव क्षेत्र से समझौता करने को तैयार नहीं। नतीजा — दोनों ही दल सीमांचल और मैदानी इलाकों में “फ्रेंडली फाइट” की स्थिति में पहुँच गए हैं।
यह स्थिति उस कहावत को सच करती है — “जब दो नावों पर पैर रखे जाते हैं, तो सफ़र डूब जाता है।”
कांग्रेस की रणनीति सीटों पर दबाव बनाकर अपना वजूद साबित करने की है, मगर इससे गठबंधन का सामूहिक चेहरा कमजोर हुआ है। वहीं RJD, अपने “बड़े भाई” वाले रुतबे को बचाने में इतनी व्यस्त है कि उसे सहयोगियों के असंतोष का अंदाज़ा नहीं हो रहा।
छोटे सहयोगियों का असंतोष — सामाजिक समीकरण पर वार
राजनीति में छोटे दल अक्सर वह भूमिका निभाते हैं जो किसी बड़ी जंग में “साइड फ्लैंक” की होती है। उनकी उपस्थिति दिखती कम है, पर असर गहरा छोड़ती है।
झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) ने बिहार के सीमावर्ती क्षेत्रों में अलग चुनाव लड़ने का निर्णय लेकर MGB की एकता को झटका दिया है। यह कदम केवल सीटों का नहीं, बल्कि “भावनात्मक अलगाव” का संकेत देता है। वहीं VIP के प्रमुख मुकेश सहनी निषाद समाज की राजनीतिक आकांक्षाओं के प्रतीक बनकर उभरे हैं। उनका उपमुख्यमंत्री पद की मांग पर अड़ जाना यह बताता है कि MGB के भीतर शक्ति-संतुलन का समीकरण डगमगा चुका है।
अगर छोटे सहयोगी दल अलग राह पर चलते हैं, तो महागठबंधन का जातीय और सामाजिक समीकरण टूट जाएगा — और यही NDA की सबसे बड़ी ताक़त बनेगी।
NDA की सधी हुई रणनीति
NDA की रणनीति बेहद स्पष्ट और गणनात्मक रही है। भाजपा और उसके सहयोगियों ने पहले ही यह समझ लिया था कि विपक्ष की एकता केवल “स्लोगन” है, जमीनी हकीकत नहीं। इसीलिए उन्होंने अपने प्रचार अभियान को “संगठन बनाम अराजकता” की थीम पर केंद्रित कर दिया।
NDA का यह मैसेज जनता तक पहुंच चुका है कि “हमारे पास नेतृत्व भी है, नीतियाँ भी, और अनुशासन भी।” दूसरी ओर, महागठबंधन की अंदरूनी खींचतान जनता को असमंजस में डाल रही है। राजनीति में यह मनोवैज्ञानिक बढ़त ही अक्सर जीत का आधार बनती है।
संगठन बनाम आकर्षण
महागठबंधन में करिश्माई चेहरे ज़रूर हैं, मगर करिश्मा तब तक ही असरदार रहता है जब तक संगठन मजबूत हो। बिहार के मतदाता केवल चेहरे नहीं, टीम वर्क देखते हैं। NDA के पास यह टीम है — कार्यकर्ताओं से लेकर स्थानीय नेतृत्व तक, एक निश्चित अनुशासन।
MGB अभी भी “भावनात्मक अपील” और “मोदी विरोध” के सहारे अपनी पहचान ढूँढने की कोशिश में है। लेकिन जब जनता विकास, स्थिरता और भरोसे के मुद्दे पर निर्णय लेती है, तो केवल नारों से काम नहीं चलता।
यह वही बिहार है जिसने पहले भी भावनाओं की राजनीति को ठुकराकर परिणाम आधारित राजनीति को अपनाया है।
जनता का नजरिया – भरोसा या भ्रम
बिहार की जनता राजनीतिक रूप से बेहद परिपक्व है। वह जानती है कि चुनाव केवल गठबंधन का गणित नहीं, बल्कि नीति और नीयत का प्रतिबिंब है।
महागठबंधन की लगातार असमंजसपूर्ण स्थिति जनता को यह सोचने पर मजबूर कर रही है कि “अगर अब इनका तालमेल नहीं बन पा रहा, तो शासन में कैसे चलेगा?”
NDA का यही मनोवैज्ञानिक लाभ उसे चुनाव में एक कदम आगे ले जा सकता है।
राजनीति में यह अक्सर कहा जाता है — “जो संगठित है, वही विश्वसनीय है।”
आत्मघाती अराजकता का मूल्य
महागठबंधन का यह संकट केवल चुनावी रणनीति की गलती नहीं है; यह एक विचारधारात्मक भ्रम का परिणाम है। गठबंधन बनने का उद्देश्य था सत्ता परिवर्तन, परंतु दिशा तय करने की जिम्मेदारी किसी ने नहीं ली।
यह वही गलती है जो कई ऐतिहासिक गठबंधनों ने की — “एकता केवल विरोध के लिए, न कि निर्माण के लिए।”
यदि विपक्ष अपनी आंतरिक दरारों को भरने में विफल रहता है, तो बिहार का जनादेश एक बार फिर यह साबित करेगा कि जनता अनुशासन, नेतृत्व और विश्वसनीयता को ही प्राथमिकता देती है।
राजनीति का यह सबक सदा कायम रहेगा —
👉 “संगठन से ही शक्ति बनती है, और शक्ति के बिना विचार भी कमजोर पड़ जाता है।”






