
अफ़ग़ानिस्तान के साथ भारत की एकता से पाकिस्तान में हलचल
भारत ने अफ़ग़ानिस्तान के साथ खड़े होकर पाकिस्तान को दिया सख़्त पैगाम
भारत ने अफ़ग़ानिस्तान के प्रति अपना समर्थन दोहराते हुए पाकिस्तान को स्पष्ट संदेश दिया है कि आतंकवाद को बढ़ावा देने और पड़ोसी देशों को दोष देने की नीति अब नहीं चलेगी। अफ़ग़ानिस्तान की संप्रभुता का सम्मान ही दक्षिण एशिया की स्थिरता की कुंजी है।
📍नई दिल्ली 🗓️ 17 अक्तूबर 2025✍️आसिफ़ ख़ान
भारत और अफ़ग़ानिस्तान के दरमियान हाल के कूटनीतिक समीकरणों ने दक्षिण एशिया की राजनीति में नई दिशा पैदा की है। जब विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने खुले शब्दों में कहा कि “पाकिस्तान अपनी विफलताओं के लिए पड़ोसियों को दोष देता रहा है”, तो यह केवल एक बयान नहीं बल्कि एक रणनीतिक संकेत था।
पाकिस्तान इस समय हर मोर्चे पर झुलस रहा है — आर्थिक अस्थिरता, आतंरिक बगावत, और बाहरी दबावों ने उसकी राजनीतिक जमीन हिला दी है। तालिबान से सीमा पर झड़पें, बलूचिस्तान का विद्रोह और पीओके (पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर) में जनता का उबाल — ये सब मिलकर उस बड़े भू-राजनीतिक संकट की तस्वीर खींच रहे हैं जिसमें इस्लामाबाद धीरे-धीरे फँसता जा रहा है।
भारत का रुख इस बार स्पष्ट है। न तो आक्रामकता, न ही बचाव — बल्कि संतुलित लेकिन दृढ़ कूटनीति। अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्ताक़ी की भारत यात्रा ने यह सिग्नल दिया कि काबुल अब सिर्फ़ पाकिस्तान का “स्ट्रैटेजिक डेप्थ” नहीं रहा, बल्कि भारत के साथ समान साझेदारी की दिशा में बढ़ रहा है।
भारत के तीन सीधे पैग़ाम जिन्होंने पाकिस्तान को झटका दिया
पहला: पाकिस्तान आतंकवाद को पनाह देता है और आतंकवादी संगठनों को प्रायोजित करता है।
दूसरा :अपनी घरेलू विफलताओं को छिपाने के लिए पाकिस्तान हमेशा पड़ोसियों पर दोष मढ़ता है।
तीसरा :अफ़ग़ानिस्तान की संप्रभुता को चुनौती देना खुद पाकिस्तान के लिए आत्मघाती कदम है।
इन तीन लाइनों ने पाकिस्तान की “नैरेटिव पॉलिटिक्स” को झकझोर दिया। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अब भारत की बात को गंभीरता से सुना जा रहा है, जबकि पाकिस्तान की स्थिति लगातार हाशिए पर जा रही है।
अफ़ग़ानिस्तान सीमा संघर्ष: एक नया मोड़
हाल ही में हुई झड़पों में तालिबान और पाकिस्तानी बलों के बीच कई अफ़ग़ान नागरिकों की मौत हुई। भारत ने इस पर गहरी चिंता और निंदा दोनों व्यक्त की।
रणनीतिक दृष्टि से देखें तो यह केवल सीमाई विवाद नहीं बल्कि “डुरंड लाइन” के ऐतिहासिक घाव का पुनर्जीवन है।
अफ़ग़ानिस्तान डुरंड रेखा को औपनिवेशिक अन्याय मानता है, जबकि पाकिस्तान इसे अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में मान्यता दिलाने की कोशिश करता रहा है।
तालिबान के सत्तारूढ़ होने के बाद पाकिस्तान को उम्मीद थी कि काबुल उसके इशारों पर चलेगा, लेकिन अब परिदृश्य बदल चुका है — काबुल अब इस्लामाबाद की नहीं, अपनी शर्तों पर बात कर रहा है।
बलूचिस्तान की बग़ावत और पाकिस्तान की आंतरिक कमजोरी
बलूचिस्तान की कहानी पाकिस्तान की सबसे पुरानी लेकिन अनदेखी त्रासदी है।
खनिज संपदा से समृद्ध इस क्षेत्र में गरीबी, बेरोज़गारी और उपेक्षा चरम पर है।
पाकिस्तान ने स्थानीय जनता को विकास की बजाय दमन दिया, और चीनी कंपनियों के साथ ऐसे समझौते किए जिससे वहाँ के युवाओं में ग़ुस्सा और गहराया।
बलूच लिबरेशन आर्मी के बढ़ते हमले न केवल राजनीतिक चुनौती हैं, बल्कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) के लिए भी खतरा बन चुके हैं।
यही कारण है कि बीजिंग अब नए निवेश पर हाथ रोकने लगा है। पाकिस्तान का “ऑल-वेथर फ्रेंड” अब उससे आर्थिक दूरी बना रहा है।
पीओके में असंतोष की आग
पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में पिछले दो सालों से लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं।
लोग बिजली, पानी और रोज़गार जैसी बुनियादी ज़रूरतों के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं।
पाकिस्तानी सेना का कठोर रवैया जनता के असंतोष को और गहरा कर रहा है।
यह स्थिति भारत के लिए अवसर की तरह देखी जा सकती है, पर भारत ने संयम रखा है — कोई आक्रामक बयान नहीं, केवल यह दोहराया कि PoK भारत का अभिन्न अंग है और पाकिस्तान वहाँ के मानवाधिकारों का उल्लंघन बंद करे।
अंदरूनी उथल-पुथल: सेना बनाम जनता
पहली बार पाकिस्तान में सेना की आलोचना खुलेआम हो रही है।
जनरल असीम मुनीर की कमान में सेना की पकड़ भले बरकरार है, पर जनता का भरोसा डगमगा गया है।
“जनरल गो होम” जैसे नारे अब सोशल मीडिया पर आम हो चुके हैं।
राजनीतिक नेतृत्व कमजोर है, और इमरान ख़ान का मुद्दा अब केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की नाकामी का प्रतीक बन गया है।
क्या पाकिस्तान फिर से बँटने की कगार पर है?
इतिहास गवाह है — जब किसी देश का प्रशासनिक ढांचा कमजोर पड़ता है,
सेना और राजनीति के बीच दरार बढ़ती है,
और बाहरी मोर्चों पर लगातार हार मिलती है,
तो बिखराव तय हो जाता है।
पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) का अलग होना कोई संयोग नहीं था।
आज पाकिस्तान एक बार फिर वैसी ही राह पर दिखाई देता है।
बलूचिस्तान, पीओके और खैबर पख्तूनख्वा में जो असंतोष है,
वो केवल स्थानीय मुद्दा नहीं बल्कि पूरे संघीय ढांचे की विफलता का संकेत है।
अगर हालात पर नियंत्रण नहीं पाया गया, तो पाकिस्तान भले नक़्शे पर एक देश बना रहे,
पर उसके भीतर “फंक्शनल यूनिटी” टूट जाएगी —
यानि बाहर से एक, अंदर से बिखरा हुआ।
भारत की रणनीतिक भूमिका
भारत इस पूरे परिदृश्य को “मौन कूटनीति” के ज़रिए हैंडल कर रहा है।
सीधे दख़ल के बजाय संवाद, विकास और मानवतावादी सहायता के ज़रिए अपनी उपस्थिति मज़बूत कर रहा है।
काबुल में भारतीय दूतावास का सक्रिय होना, मानवीय सहायता और निवेश प्रस्ताव — ये सब संकेत हैं कि भारत क्षेत्रीय स्थिरता के लिए दीर्घकालिक सोच रखता है।
भारत ने यह भी सुनिश्चित किया कि यह मुद्दा “भारत बनाम पाकिस्तान” का नहीं बल्कि “आतंकवाद बनाम शांति” का बने।
और यही अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल करने की असली कुंजी है।
नतीजा
दक्षिण एशिया के बदलते समीकरणों में भारत की भूमिका निर्णायक है।
पाकिस्तान की नीतिगत अस्थिरता और अफ़ग़ानिस्तान की नई संप्रभु आवाज़ ने शक्ति संतुलन को नया आकार दिया है।
भारत ने जिस संतुलन, दृढ़ता और संवेदनशीलता से कूटनीति की है,
वह इसे केवल क्षेत्रीय शक्ति नहीं बल्कि ज़िम्मेदार वैश्विक खिलाड़ी की पहचान देती है।




