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भारत के चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली संविधान पीठ ने केंद्र का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ कानून अधिकारियों अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी तथा सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और अपीलकर्ताओं की पैरवी कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ताओं राजीव धवन, कपिल सिब्बल, और अन्य की मौखिक दलीलों की सुनवाई पूरी की.
नई दिल्ली,(Shah Times) । सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) को माइनॉरिटी स्टेटस देने की मांग करने वाली याचिकाओं पर लगातार आठ दिनों की सुनवाई के बाद गुरुवार को अपना फैसला महफूज़ रख लिया।
चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा औरन्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की संविधान पीठ ने संबंधित पक्षों को दलीलें सुनने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया।
पीठ ने सुनवाई के दौरान पाया कि एएमयू अधिनियम में 1981 का संशोधन (जिसने 1967 के अज़ीज़ बाशा फैसले के बाद इसकी अल्पसंख्यक स्थिति को बहाल किया) ने 1951 के संशोधन अधिनियम (अज़ीज़ बाशा मामले में बरकरार रखा गया) से पहले की स्थिति को बहाल नहीं किया।
संविधान पीठ ने कहा, “संशोधन (1981 का) ने एएमयू में एक ‘मुस्लिम’ आवाज लाई, लेकिन यह 1951 से पहले के अधिनियम या 1920 के अधिनियम तक वापस जाने से रुक गया।”
पीठ ने कहा कि जाहिर तौर पर संसद ने भी यह काम आधे-अधूरे मन से किया, क्योंकि उसके पास ऐसा (कानून) करने का अधिकार है। पीठ के समक्ष एएमयू की ओर से पेश होते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने एएमयू अकादमिक परिषद सहित इसके प्रबंधन पर मुस्लिम प्रतिनिधित्व के संबंध में दलीलें दीं।
वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने एएमयू ओल्ड बॉयज़ एसोसिएशन का पक्ष रखते हुए कहा कि संस्थान की अल्पसंख्यक स्थिति तय करते समय यह विचार करना प्रासंगिक नहीं कि एएमयू के कार्यकारी और शैक्षणिक निकायों में कितने मुस्लिम हैं।
श्री सिब्बल ने दावा किया कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को चुनौती देकर देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को खारिज नहीं किया जा सकता। उन्होंने दावा किया, ”हम किस तरह की जांच कर रहे हैं, इतिहास में पहले कभी ऐसा नहीं किया गया है। संख्यात्मक ताकत कभी कोई मुद्दा नहीं हो सकती।”
वरिष्ठ अधिवक्ता श्री सिब्बल ने तर्क दिया कि यह मानना गलत होगा कि अल्पसंख्यक संस्थान माने-जाने के लिए मुसलमानों या ईसाइयों को एक संस्थान चलाना होगा। उन्होंने कहा, “क्या हमें ऐसी जांच लागू करना चाहिए जो इस देश में पूरे अल्पसंख्यक शैक्षिक ढांचे को नष्ट कर देगा? इसीलिए मैंने कहा कि प्रशासन करना मेरा कर्तव्य नहीं, बल्कि अधिकार है।”
श्री सिब्बल ने दलील दी कि एएमयू के संस्थापक और अन्य सभी ने इसके बारे में वैधानिक अर्थों में नहीं सोचा था और वे बहुत स्पष्ट थे कि सरकारी पर्यवेक्षण हो सकता है, लेकिन कोई सरकारी नियंत्रण नहीं है। आगे उन्होंने तर्क दिया कि संस्थापकों के बारे में यह दावा कि वे अंग्रेजों के प्रति वफादार थे, इस पहलू को कमजोर नहीं करते।
शीर्ष अदालत ने फरवरी 2019 में इस विवादास्पद मुद्दे को सात सदस्यीय पीठ के पास भेज दिया था। इसी तरह का एक संदर्भ 1981 में भी दिया गया था। 1967 में ‘एस अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ’ मामले में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि चूंकि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय था, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता है। जब संसद ने 1981 में एएमयू (संशोधन) अधिनियम पारित किया तो इसका अल्पसंख्यक दर्जा बहाल कर दिया गया। जनवरी 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1981 के कानून के उस प्रावधान को रद्द कर दिया, जिसके द्वारा विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा दिया गया था।
कांग्रेस नेतृत्व वाली केंद्र की यूपीए सरकार और एएमयू ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी। वर्ष 2016 में एनडीए सरकार ने शीर्ष अदालत के समक्ष कहा कि वह पिछली सरकार द्वारा दायर अपील वापस ले लेगी।
शीर्ष अदालत ने पिछले माह 24 जनवरी की सुनवाई के दौरान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक दर्जा बहाल करने वाले 1981 के संशोधित अधिनियम पर कायम नहीं रहने के केंद्र सरकार के रुख पर आश्चर्य व्यक्त किया था।
मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की पीठ ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा कि क्या उन्होंने (सरकार) 1981 में संसद द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम में किए गए संशोधन को स्वीकार किया है। इस पर श्री मेहता ने कहा नहीं।
पीठ ने मेहता से पूछा था, “यह संसद द्वारा किया गया एक संशोधन है। क्या सरकार इसे स्वीकार कर रही है।” श्री मेहता ने जवाब दिया, ”मैं (सरकार) नहीं मान रहा हूं।”
सॉलिसिटर जनरल के जवाब से आश्चर्यचकित पीठ ने सवाल किया था, “आप संसद के संशोधन को कैसे स्वीकार नहीं कर सकते? संसद भारतीय संघ के अधीन एक शाश्वत, अविनाशी संस्था है। चाहे कोई भी सरकार भारत संघ के मुद्दे का प्रतिनिधित्व करती हो, संसद का मुद्दा शाश्वत, अविभाज्य और अविनाशी है।
पीठ की ओर से मुख्य न्यायाधीश ने कहा, “…और मैं भारत सरकार को यह कहते हुए नहीं सुन सकता कि संसद ने जो संशोधन किया, ‘मैं उस पर कायम नहीं हूं’।” न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने मेहता से कहा, “आपको इस संशोधन के साथ खड़ा होना होगा। आपके पास एक विकल्प है कि संशोधन का रास्ता अपनाएं और संशोधित अधिनियम को फिर से बदलें।”