
Bombay High Court issues crucial verdict on POCSO Act, reiterates strong message on child safety.
बाल यौन अपराधों पर बॉम्बे हाईकोर्ट का बड़ा फैसला: ‘सहमति अप्रासंगिक’
पॉक्सो कानून पर नई व्याख्या: अदालत ने संवैधानिक सिद्धांतों को दोहराया
📍Mumbai
🗓️ 21 अक्तूबर 2025
✍️ असिफ़ ख़ान
बॉम्बे हाईकोर्ट ने पॉक्सो एक्ट के तहत दिए एक अहम फैसले में कहा है कि “थोड़ा सा भी प्रवेशन बलात्कार है” और नाबालिग की सहमति का कोई कानूनी महत्व नहीं। अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 20(1) की पुष्टि करते हुए स्पष्ट किया कि अपराध के समय जो सज़ा लागू थी, वही दी जाएगी — न कि बाद के संशोधनों के तहत बढ़ाई गई सज़ा।
कानूनी पृष्ठभूमि और मामला
नागपुर पीठ का यह फैसला भारत की न्यायिक प्रणाली के लिए एक अहम मिसाल बन गया है। वर्धा जिले के एक ड्राइवर को 5 और 6 साल की दो बच्चियों के साथ यौन हमले के प्रयास का दोषी पाया गया था। अभियुक्त ने बच्चों को अमरूद का लालच दिया, उन्हें अश्लील वीडियो दिखाए, और फिर शारीरिक हमला किया। ट्रायल कोर्ट ने उसे पॉक्सो की धारा 6 और IPC 511 के तहत दोषी ठहराया और 10 साल की सज़ा सुनाई।
अपील में आरोपी ने झूठे फँसाए जाने की दलील दी, मगर न्यायमूर्ति निवेदिता मेहता ने सबूतों और पीड़ित बच्चियों की गवाही पर भरोसा करते हुए सज़ा बरकरार रखी।
‘थोड़ा भी प्रवेशन’ का मतलब क्या है?
अदालत ने साफ कहा कि पॉक्सो अधिनियम के तहत “स्लाइटेस्ट पेनिट्रेशन” यानी थोड़ा सा भी प्रवेशन बलात्कार माना जाएगा। यहाँ अदालत ने कानून के अक्षर और भावना दोनों को सटीक तरीके से लागू किया — क्योंकि किसी बच्चे की गरिमा का उल्लंघन उसकी शारीरिक चोट से नहीं, बल्कि उस क्षण से होता है जब उस पर यौन हमला होता है।
यह व्याख्या भविष्य में आने वाले मामलों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। क्योंकि इससे अभियुक्त यह नहीं कह पाएगा कि प्रवेशन “पूरा नहीं हुआ था”, इसलिए अपराध “प्रयास” माना जाए। यह बच्चों की सुरक्षा को कमज़ोर करने वाले सभी बचावों पर सीधा प्रहार है।
सहमति का सवाल: नाबालिग की इच्छा का कोई मूल्य नहीं
पॉक्सो एक्ट में बच्चा वह है जिसकी उम्र 18 वर्ष से कम हो। इसका सीधा अर्थ है — कोई नाबालिग यौन संबंध के लिए वैध सहमति नहीं दे सकता। अदालत ने इसे फिर दोहराया कि “सहमति का दिखना” और “सहमति का वैध होना” दो अलग बातें हैं।
यह सिद्धांत Parens Patriae — यानी राज्य को बच्चों का संरक्षक मानने के विचार से जुड़ा है। यानी जब बच्चा खुद अपने हित में निर्णय नहीं ले सकता, तो राज्य उसका संरक्षक बनकर उसकी सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
संवैधानिक पहलू: सज़ा अपराध के समय के हिसाब से तय होगी
सत्र न्यायालय ने सज़ा तय करते वक्त 2019 में आए पॉक्सो संशोधन को लागू किया, जिसमें सज़ा की न्यूनतम अवधि 20 वर्ष थी। लेकिन अपराध 2018 का था। इसलिए उच्च न्यायालय ने इसे सुधारते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 20(1) के अनुसार अपराध के समय जो सज़ा थी — वही लागू होगी।
इससे यह सुनिश्चित हुआ कि कठोर सज़ा देने की जल्दबाज़ी में न्यायिक प्रक्रिया संविधान का उल्लंघन न करे।
पॉक्सो बनाम IPC: फर्क क्यों अहम है
IPC की धारा 375 मुख्यतः महिलाओं के साथ शिश्न-योनि प्रवेशन तक सीमित थी। पॉक्सो एक्ट इससे कहीं आगे जाता है। यह जेंडर-न्यूट्रल है, यानी पीड़ित कोई भी हो सकता है। इसमें प्रवेशन के सभी रूप शामिल हैं — योनि, गुदा, मुख, या किसी वस्तु के माध्यम से। यही वजह है कि यह बच्चों के खिलाफ सभी तरह के यौन अपराधों को कवर करता है।
बाल साक्षी की गवाही: विश्वसनीयता का सवाल
न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि छोटी उम्र के बच्चों की गवाही को कमतर नहीं आँकना चाहिए। अगर उनकी बातें सुसंगत और स्वाभाविक हैं, तो वही दोषसिद्धि का आधार बन सकती हैं।
चिकित्सकीय रिपोर्ट में चोटों की अनुपस्थिति को अदालत ने कम महत्व दिया, क्योंकि घटना के 15 दिन बाद जांच हुई थी, और पीड़ित बच्चियों की उम्र बेहद कम थी। अदालत ने कहा — “चोटों का न होना यह साबित नहीं करता कि अपराध नहीं हुआ।”
कानूनी सख्ती बनाम सामाजिक यथार्थ
16 से 18 साल के किशोरों के मामलों में यही सख्त नियम अक्सर विवाद पैदा करते हैं। कानून कहता है कि 18 से कम किसी भी उम्र में सहमति अप्रासंगिक है। लेकिन हकीकत यह है कि कई बार बड़े किशोर आपसी सहमति से संबंध बनाते हैं, और तब मामला आपराधिक मुकदमे में बदल जाता है।
यह “ग्रे ज़ोन” — यानी कानूनी और सामाजिक यथार्थ के बीच का अंतर — नीति-निर्माताओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
विधायी सुधार की ज़रूरत
कानूनी विशेषज्ञ सुझाव देते हैं कि पॉक्सो कानून में थोड़ा न्यायिक विवेक जोड़ा जाए — ताकि न्यायाधीश यह तय कर सकें कि 16-18 वर्ष के बीच के सहमति वाले मामलों में अनिवार्य न्यूनतम सज़ा लगानी है या नहीं।
इससे कानून शिकारी अपराधियों पर तो सख्त रहेगा, पर किशोरों को अनावश्यक रूप से अपराधी नहीं बनाएगा।
न्यायिक ढांचा और आंकड़े
NCRB के 2023 के आंकड़ों के अनुसार, पॉक्सो के तहत 67,000 से अधिक मामले दर्ज हुए — यानी हर 10 में से 4 बाल अपराध इसी कानून के तहत आते हैं। 40,000 से अधिक मामले “भेदनशील यौन हमले” के थे।
भले ही देश में 758 फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए गए हैं, फिर भी मार्च 2023 तक 1.3 लाख से अधिक मामले लंबित थे। इसका मतलब है कि हर साल न्याय की प्रक्रिया बच्चों के लिए लंबी होती जा रही है, जो अपने आप में एक मानसिक उत्पीड़न है।
नतीजा
यह फैसला सिर्फ एक आरोपी के खिलाफ नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए एक चेतावनी है — कि बच्चों की गरिमा किसी भी हालत में समझौते की चीज़ नहीं।
नागपुर पीठ का यह निर्णय पॉक्सो एक्ट की आत्मा — Zero Tolerance — को मजबूत करता है। यह बताता है कि बच्चों की सुरक्षा किसी बहस या दलील की नहीं, बल्कि संविधान और समाज की साझा ज़िम्मेदारी है।




