
The Supreme Court rejected the Telangana government's decision to provide 42% OBC reservation.
ओबीसी आरक्षण सीमा पर सुप्रीम कोर्ट की सख़्त टिप्पणी
तेलंगाना में आरक्षण बढ़ोतरी पर सुप्रीम कोर्ट की ना
📍हैदराबाद 🗓️ 16 अक्टूबर 2025✍️आसिफ़ ख़ान
तेलंगाना में ओबीसी आरक्षण 42% तक बढ़ाने के राज्य सरकार के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट ने नामंज़ूर कर दिया है। अदालत ने 50% आरक्षण की तय संवैधानिक सीमा का हवाला देते हुए कहा कि कोई भी राज्य इस सीमा को पार नहीं कर सकता। यह निर्णय न सिर्फ़ कानूनी, बल्कि सामाजिक संतुलन और समानता के प्रश्न को भी सामने लाता है।
ओबीसी आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की रोक: न्याय और सामाजिक संतुलन का सवाल
तेलंगाना सरकार ने ओबीसी को स्थानीय निकायों में अधिक प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण 42% तक बढ़ाने का प्रस्ताव रखा था। सरकार का तर्क था कि पिछड़े वर्गों को जनसंख्या के अनुपात में हिस्सेदारी मिलनी चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि “संविधान के तहत आरक्षण की सीमा 50% तय है, और उसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता।”
यह निर्णय एक बार फिर से उस ऐतिहासिक इंदिरा साहनी केस (1992) की याद दिलाता है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने सामाजिक न्याय और संवैधानिक मर्यादा के बीच संतुलन बनाते हुए आरक्षण की अधिकतम सीमा तय की थी।
⚖️ न्याय बनाम राजनीति
तेलंगाना सरकार का तर्क सामाजिक न्याय पर आधारित था, लेकिन न्यायालय का नज़रिया संविधानिक मर्यादाओं की रक्षा का था। यहाँ सवाल यह उठता है — क्या सामाजिक न्याय की परिभाषा समय के साथ बदली जानी चाहिए या नहीं?
कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में सामाजिक असमानता आज भी वैसी ही है जैसी दशकों पहले थी। ऐसे में 50% सीमा स्थायी नहीं रहनी चाहिए। जबकि दूसरे पक्ष का मानना है कि आरक्षण का उद्देश्य समान अवसर देना है, न कि स्थायी कोटा बनाना।
यानी बहस का केंद्र यही है — क्या आरक्षण सीमित समय के लिए सुधारात्मक कदम है या स्थायी अधिकार?
🏛️ सुप्रीम कोर्ट का संतुलन
न्यायालय ने तेलंगाना हाईकोर्ट के फ़ैसले को बरकरार रखते हुए कहा कि जब तक केंद्र संविधान में संशोधन नहीं करता, तब तक 50% सीमा को लांघना असंभव है।
यह निर्णय केवल एक राज्य का मामला नहीं, बल्कि उन सभी राज्यों के लिए एक संदेश है जो अपने स्तर पर सामाजिक समीकरण बदलने की कोशिश कर रहे हैं।
🌍 समाजिक दृष्टिकोण
तेलंगाना के ग्रामीण इलाक़ों में बड़ी संख्या में ओबीसी समुदाय के लोग आर्थिक रूप से अब भी पिछड़े हैं। वे मानते हैं कि आरक्षण उनकी आवाज़ और अधिकार की एकमात्र राह है। दूसरी तरफ़ कुछ नागरिक वर्ग कहते हैं कि आरक्षण के दायरे में आने के बजाय शिक्षा, रोजगार और अवसरों की समान पहुंच पर ज़ोर दिया जाना चाहिए।
“इंसाफ़ सिर्फ़ कोटा बढ़ाने से नहीं, बराबर मौक़े देने से मिलता है।”
🧠 नज़रिया
कुछ संविधान विशेषज्ञ यह भी तर्क देते हैं कि यदि राज्यों को स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार आरक्षण तय करने की अनुमति दी जाए, तो सामाजिक संतुलन बेहतर तरीके से साधा जा सकता है।
मगर समस्या यह है कि संविधान की मूल भावना संघीय संतुलन और एकरूपता पर आधारित है।
इसलिए यह ज़रूरी है कि केंद्र और राज्य के बीच इस विषय पर खुला संवाद हो।
क्योंकि अगर हर राज्य अपनी अलग आरक्षण सीमा तय करेगा, तो देशभर में नीतिगत असमानता पैदा हो जाएगी।
🕊️ सामाजिक न्याय की नई परिभाषा
आरक्षण सिर्फ़ आंकड़ा नहीं, बल्कि सामाजिक सुधार की प्रक्रिया है।
तेलंगाना का मामला हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम अब भी 1992 की परिस्थितियों में जी रहे हैं या समाज इतना आगे बढ़ चुका है कि नए मापदंड तय करने की ज़रूरत है।
सामाजिक न्याय का मकसद किसी वर्ग को ऊपर उठाना नहीं, बल्कि सभी को एक समान अवसर देना है।
इसीलिए अब यह चर्चा ज़रूरी है कि —
क्या हमें “50% सीमा” को समयानुकूल संशोधित करना चाहिए, या उसे बरकरार रखकर नीतिगत सुधारों पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए?
🔍 नज़रिया
तेलंगाना सरकार का उद्देश्य नेक था, लेकिन विधिक ढांचे की सीमाओं से टकरा गया। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय संविधान के संरक्षण का उदाहरण है, वहीं यह सामाजिक बहस का भी संकेत देता है कि भारत को अब आरक्षण की सीमा नहीं, बल्कि समानता के साधन खोजने चाहिए।
यह निर्णय न तो किसी की जीत है, न हार — यह संविधान के सिद्धांतों और सामाजिक न्याय के बीच संतुलन की एक और कोशिश है।






