
Iqra Hasan statement controversy analysis with political and social impact by Shah Times
इकरा हसन के बयान ने कैराना की सियासत में हलचल मचाई
सपा सांसद इकरा हसन के आरोपों से बढ़ा सियासी तनाव
कैराना से सपा सांसद इकरा हसन ने आरोप लगाया कि एक बड़े नेता ने उनके खिलाफ अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया और धर्म-बिरादरी के नाम पर उन्हें निशाना बनाया। उनका बयान अब सिर्फ बयान नहीं, बल्कि सियासत, समाज और महिला सम्मान के बीच एक नया विमर्श बन गया है।
📍Kairana 🗓️ 16 अक्टूबर 2025
✍️ Asif Khan
इकरा हसन का दर्द या रणनीति? राजनीति में नया मोड़
कभी-कभी एक जुमला पूरे सियासी नक़्शे को बदल देता है। उत्तर प्रदेश की कैराना सीट से सांसद इकरा हसन का हालिया बयान भी कुछ ऐसा ही असर छोड़ गया है। उन्होंने कहा — “मुझे मुल्ली और आतंकवादी कहा गया।” यह महज़ शिकायत नहीं थी, बल्कि समाज में फैलते जहर पर एक आईना थी।
इकरा हसन, जो चौधरी हसन की पोती और मनव्वर हसन तबस्सुम हसन की बेटी हैं, उस सियासी खानदान से आती हैं जिसने दशकों तक पश्चिमी यूपी में धर्म और जाति की रेखाओं से ऊपर उठकर राजनीति की। लेकिन अब वही ज़मीन, जिसे “गंगा-जमुनी तहज़ीब” की मिसाल कहा जाता था, वहां एक महिला सांसद को अपने धर्म की सफाई देनी पड़ रही है — यही इस कहानी की सबसे दर्दनाक परत है।
उन्होंने कहा कि “इलाके के ही एक बड़े नेता” ने उनके खिलाफ अभद्र शब्दों का इस्तेमाल किया, पर उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया। इशारों में बहुत कुछ कहा गया, पर चुप्पी में और भी ज़्यादा सुना गया।
कुराली-छापुर गांव में शिव-लक्ष्मी मंदिर की दीवारें टूटी थीं, लेकिन वहां पहुंची इकरा का दिल ज़्यादा टूटा दिखा। उन्होंने कहा — “मंदिर या किसी भी आस्था की जगह को खंडित करना बर्दाश्त के काबिल नहीं।”
यह एक ऐसे राजनेता की बात थी जो समाज को जोड़ने आई थी, तोड़ने नहीं।
उन्होंने आगे कहा — “महिलाओं के चरित्र, धर्म और बिरादरी के खिलाफ जिस तरह की भाषा का प्रयोग हुआ, क्या हम यह संदेश देना चाहते हैं कि हमारा समाज ऐसा है?”
उनकी आवाज़ में एक तड़प थी — वह तड़प जो तब महसूस होती है जब राजनीति इंसानियत से ऊपर उठने लगती है।
राजनीतिक पृष्ठभूमि और ज़मीनी समीकरण
कैराना सीट हमेशा से ही सियासी प्रयोगशाला रही है। 2017 में “पलायन” का मुद्दा उठा था। तब यह इलाका धार्मिक विभाजन की मिसाल बना था।
2024 में इकरा हसन ने इस बंटवारे के खिलाफ जाकर हर बिरादरी का वोट हासिल किया। वह कहती हैं — “जब मैं जीती थी तो हर धर्म, हर जाति ने मुझे वोट दिया था। मेरे लिए इससे बड़ी उपलब्धि कोई नहीं।”
इकरा का बयान सिर्फ व्यक्तिगत आहत का मामला नहीं, बल्कि उस मानसिकता की ओर इशारा है जो महिलाओं को राजनीति में बराबर नहीं देख पाती।
एक महिला सांसद की जद्दोजहद
इकरा हसन का दर्द उस हर लड़की की आवाज़ है जो सत्ता के गलियारों में कदम रखती है। उन्होंने कहा —
“मेरे इलाके की बेटियां जो मुझे देखकर आगे बढ़ना चाहती थीं, अब हिचक रही हैं।”
यह वाक्य नारे से ज़्यादा, एक चेतावनी जैसा था। राजनीति सिर्फ भाषण नहीं, माहौल बनाती है। और जब माहौल ज़हर से भर जाए, तो लोकतंत्र की हवा भी भारी लगने लगती है।
सियासत और समाज के बीच की रेखा
इकरा हसन ने यह भी कहा —
“मुझपर कहा गया कि मैंने धर्म बदल लिया। मेरी बिरादरी मेरे खून में है, चाहो तो खून निकालकर देख लो।”
यह बयान सिर्फ आहत आत्मा का नहीं, बल्कि उस भारतीय स्त्री का है जो धर्म और पहचान के ताने-बाने में खुद को हर दिन साबित करती है।
उन्होंने जोड़ा — “मेरे लिए मुसलमानों की बातें करना आसान है, लेकिन मैं ऐसा नहीं चाहती। सब मेरे अपने हैं।”
यही संवाद उनके बयान को सियासी से ज़्यादा नैतिक बनाता है।
राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया
समाजवादी पार्टी ने तुरंत उनके पक्ष में खड़ी होकर कहा कि “महिलाओं और अल्पसंख्यक नेताओं पर हमला लोकतंत्र की आत्मा को ठेस पहुंचाता है।”
वहीं भाजपा के स्थानीय नेताओं ने इसे “राजनीतिक ड्रामा” कहा।
मगर सवाल यह नहीं कि यह बयान किसके खिलाफ था — सवाल यह है कि क्या हम किसी भी महिला की आवाज़ को इतना कमजोर कर चुके हैं कि वह अपने बचाव में बोल भी न सके?
राजनीति का गिरता स्तर या नैरेटिव की लड़ाई
इकरा हसन का बयान हमें दो रास्तों पर खड़ा करता है —
एक तरफ वो राजनीति है जो भावनाओं को हथियार बनाती है, और दूसरी तरफ वो राजनीति है जो इन्हीं भावनाओं में इंसानियत तलाशती है।
उनके शब्दों में आक्रोश कम और आत्मसम्मान ज़्यादा था। यही कारण है कि यह विवाद केवल चुनावी मुद्दा नहीं रहेगा, बल्कि एक विचार बनेगा।
विकल्पिक दृष्टिकोण
कुछ विश्लेषक मानते हैं कि इकरा हसन की यह भावनात्मक अपील रणनीतिक भी हो सकती है।
एक तरफ सपा को पश्चिमी यूपी में मुस्लिम और दलित वोटों को पुनर्गठित करने की ज़रूरत है, दूसरी तरफ भाजपा “राष्ट्रवाद” के नैरेटिव को मज़बूती से पकड़े हुए है।
ऐसे में इकरा का “समाज की बेटी” वाला बयान महिलाओं और युवा मतदाताओं के बीच सहानुभूति का पुल बन सकता है।
पर क्या यह सहानुभूति वोट में बदलेगी या यह भी एक क्षणिक सुर्ख़ी बनकर रह जाएगी — यही देखने लायक होगा।
सियासत से ज़्यादा समाज की कहानी
इकरा हसन का यह बयान बताता है कि भारत की राजनीति में अब केवल मुद्दे नहीं, मूड भी बदल रहे हैं।
अब जनता केवल यह नहीं देखती कि कौन क्या कह रहा है, बल्कि यह भी कि कौन सच बोलने की हिम्मत रखता है।
उनका एक वाक्य इस बहस का सार है —
“क्या मैं आपके समाज की बेटी नहीं हूं?”यह प्रश्न सिर्फ कैराना का नहीं, पूरे देश का है।
अगर हम इस सवाल का ईमानदार जवाब नहीं दे सके, तो शायद हमें अपनी राजनीति से ज़्यादा अपने समाज पर सवाल उठाने की ज़रूरत है।






