
Mob assaults Muslim girl for being with Hindu boy in Muzaffarnagar; police later arrested six accused after video went viral.
मुजफ्फरनगर में मुस्लिम युवती के साथ हिंदू युवक को देखकर की गई बदसलूकी ने इंसानियत को झकझोर दिया। यह घटना सामाजिक, सांस्कृतिक और संवैधानिक मूल्यों पर गंभीर सवाल खड़े करती है।
मुजफ्फरनगर की हालिया घटना ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है—क्या हमारे समाज में इंसान होने से पहले धर्म की पहचान ज़रूरी हो गई है? एक मुस्लिम युवती और हिंदू युवक को साथ देखकर जिस तरह की बर्बरता और भीड़तंत्र का प्रदर्शन हुआ, उसने न केवल कानून को चुनौती दी, बल्कि हमारी सामाजिक चेतना को भी कठघरे में खड़ा कर दिया।
बुर्का खींचना, चोटी पकड़कर थप्पड़ मारना, बाइक से खींचकर दुकान में ले जाकर मारपीट करना—ये सब किसी अपराध के खिलाफ नहीं, बल्कि एक सोच के खिलाफ था। एक ऐसी सोच जो आज भी धर्म और रिश्तों को शक की निगाह से देखती है।
इस घटना की भयावहता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि युवती की सिर्फ पहचान ही उसके लिए हिंसा का कारण बन गई। किसी ने नहीं पूछा कि वे दोनों कौन हैं, कहाँ जा रहे हैं, क्यों साथ हैं। किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि वे सहकर्मी हैं, एक फाइनेंस कंपनी में काम करते हैं और ड्यूटी से लौट रहे थे।
यह सिर्फ एक घटना नहीं, एक मानसिकता है
यह कोई पहली बार नहीं है जब नाम पूछकर उत्पीड़न किया गया हो। अंतरधार्मिक मेलजोल को शक और गुस्से की निगाह से देखना अब एक चलन बनता जा रहा है। और जब समाज में धर्म, जाति या पहनावे के आधार पर किसी की आज़ादी छीनी जाने लगे, तो समझिए कि खतरा सिर्फ एक व्यक्ति पर नहीं, पूरे संविधान पर है।
पुलिस की कार्रवाई सराहनीय, पर क्या यह पर्याप्त है?
पुलिस ने तत्परता दिखाई, छह आरोपियों को गिरफ्तार किया गया और सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो ने उन तक पहुँचने में मदद की। लेकिन यह घटना वहाँ रुकती नहीं। यह एक चेतावनी है—अगर हम आज नहीं जागे, तो कल यह भीड़ किसी और को निशाना बनाएगी।
हमें तय करना होगा—हम कौन हैं?
एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश के नागरिक होने के नाते हमें यह तय करना होगा कि हम समाज को नफरत के हवाले करेंगे या संवाद और समझदारी की ओर ले जाएंगे। हमें अपने बच्चों को सिखाना होगा कि इंसान की पहचान उसके धर्म से नहीं, उसके कर्म और सोच से होती है।
मुजफ्फरनगर की यह घटना सिर्फ कानून-व्यवस्था का विषय नहीं है, यह समाज की सोच का आईना है। अगर हम इस आईने में अपना चेहरा देखना नहीं चाहते, तो हमें इसे बदलना होगा। और बदलाव की शुरुआत एक सोच से होती है—कि इंसानियत से बड़ा कोई मज़हब नहीं होता।