
Prime Minister Narendra Modi and U.S. President Donald Trump share a handshake symbolizing growing India–US friendship and strategic cooperation.
ट्रंप के दावों से भारत-अमेरिका रिश्तों में नई तल्ख़ी
मोदी की मौन कूटनीति और ट्रंप की बयानबाज़ी
ट्रंप के हालिया बयानों ने भारत-अमेरिका रिश्तों में अनिश्चितता बढ़ा दी है। भारत जहाँ रूस से तेल आयात को अपने हितों से जोड़ता है, वहीं अमेरिका की सख़्ती उसे कूटनीतिक संतुलन की चुनौती दे रही है।
📍 नई दिल्ली🗓️ 18 अक्टूबर 2025 ✍️ आसिफ़ ख़ान
भारत और अमेरिका के रिश्ते हमेशा से उतार-चढ़ाव के दौर से गुज़रते रहे हैं। कभी रणनीतिक साझेदारी की मिसाल बने, तो कभी दबाव और असहमति के प्रतीक। हाल के दिनों में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लगातार दिए जा रहे बयानों ने इस रिश्ते को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है। ट्रंप का दावा है कि भारत अब रूस से तेल नहीं खरीदेगा, जबकि भारतीय विदेश मंत्रालय ने दो टूक कहा है कि भारत की ऊर्जा नीति सिर्फ़ उसके राष्ट्रीय हितों पर आधारित है।
कांग्रेस के नेता जयराम रमेश ने ट्रंप के इन दावों को लेकर मोदी सरकार पर तंज कसा और कहा कि जब भी ट्रंप कोई बड़ा दावा करते हैं, प्रधानमंत्री “मौन बाबा” बन जाते हैं। उन्होंने एक्स पर लिखा कि ट्रंप ने कहा कि मोदी ने उन्हें भरोसा दिया है कि भारत रूस से तेल कम खरीदेगा, लेकिन भारत की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है।
यह चुप्पी सिर्फ़ राजनीतिक नहीं, बल्कि रणनीतिक भी है। भारत जानता है कि हर शब्द का अंतरराष्ट्रीय असर होता है। एक बयान तेल की कीमतें, मुद्रा विनिमय दर और शेयर बाज़ार तक को प्रभावित कर सकता है। इसलिए भारत की विदेश नीति ‘बोलकर नहीं, कर के दिखाने’ की रही है।
ट्रंप प्रशासन की नीति अक्सर व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से संचालित होती दिखी है। वह एक तरफ़ मोदी को “ग्रेट मैन” कहते हैं, दूसरी तरफ़ भारत पर 50 प्रतिशत तक का टैरिफ़ लगा देते हैं। इस साल अगस्त के बाद से भारत पर अमेरिका का यह टैरिफ़ लागू है, जिसका सीधा असर भारत के निर्यात पर पड़ा है। सितंबर में अमेरिका को भारत का निर्यात 20 प्रतिशत गिरा, और चार महीनों में यह गिरावट 40 प्रतिशत तक पहुँच गई।
ट्रंप के इस रुख़ से भारत की मुश्किलें बढ़ी हैं। अमेरिका भारत का सबसे बड़ा निर्यात बाज़ार है, वहीं रूस ऊर्जा सुरक्षा का प्रमुख स्रोत। ऐसे में भारत के लिए यह दोधारी तलवार बन गया है — अगर वह रूस से तेल ख़रीदना जारी रखता है तो अमेरिका नाराज़, और अगर रोकता है तो रूस से भरोसा टूटने का ख़तरा।
रणधीर जायसवाल, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता, ने साफ़ कहा कि भारत अपनी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए कोई बाहरी दबाव नहीं मानता। उन्होंने जोड़ा कि “भारत की नीति उपभोक्ताओं के हित में है।” लेकिन यह बयान भी सावधानी से तौला गया — न पूरी तरह इनकार, न पूरी तरह स्वीकार।
दरअसल, ट्रंप का स्वभाव यह है कि वो हर डिप्लोमैटिक बातचीत को पब्लिक शो में बदल देते हैं। उन्होंने दावा किया कि मोदी ने रूस से तेल आयात रोकने का आश्वासन दिया, पर ऐसा कोई औपचारिक रिकार्ड नहीं है। भारत ने भी इस पर सीधे तौर पर झूठ का आरोप नहीं लगाया। शायद इसलिए कि भारत जानता है — अमेरिका को सीधी चुनौती देना उसके व्यापार और रक्षा सौदों पर असर डाल सकता है।
पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने कहा, “ट्रंप बातचीत का अर्थ अपने हिसाब से निकालते हैं। यही उनकी कूटनीति की सबसे बड़ी दिक्कत है।” ट्रंप पहले भी भारत पर दबाव बनाकर ईरान से तेल आयात रुकवा चुके हैं, लेकिन रूस की स्थिति अलग है। रूस भारत का दशकों पुराना सहयोगी है — रक्षा, अंतरिक्ष और ऊर्जा तीनों क्षेत्रों में।
भारत और रूस के बीच पिछले वित्त वर्ष में 68.7 अरब डॉलर का व्यापार हुआ। इसमें भारत का निर्यात सिर्फ़ 4.9 अरब डॉलर का था, जबकि बाकी सब आयात था — यानी तेल, गैस, स्टील और फार्मा। अमेरिका को भारत ने उसी साल 87 अरब डॉलर का निर्यात किया। यानि दोनों देश भारत की अर्थव्यवस्था के दो ध्रुव बन गए हैं — एक से खरीद, दूसरे को बिक्री।
ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट बताती है कि भारत को रूस से अब तेल केवल दो से ढाई डॉलर प्रति बैरल सस्ता मिल रहा है, जबकि 2023 में यह अंतर 23 डॉलर तक था। यानी छूट घट रही है, लेकिन निर्भरता बनी हुई है। ऐसे में भारत के लिए यह आर्थिक ही नहीं, राजनीतिक गणित भी है।
राहुल गांधी ने एक्स पर कहा कि “प्रधानमंत्री ट्रंप से डरते हैं।” उनकी यह टिप्पणी भावनात्मक लग सकती है, मगर इसमें एक सच्चाई छिपी है — भारत की विदेश नीति अक्सर घरेलू राजनीति से बंध जाती है। ट्रंप की बयानबाज़ी मोदी के लिए घरेलू मोर्चे पर असहजता पैदा करती है, क्योंकि वे खुद को ‘मज़बूत नेता’ के रूप में पेश करते हैं और ट्रंप के बयान उनकी छवि पर सवाल खड़े कर देते हैं।
अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक माइकल कुगलमैन लिखते हैं — “अमेरिका का दबाव हमेशा भारत के लिए दोहरी चुनौती बनता है। ईरान से तेल बंद करना आसान था, क्योंकि विकल्प थे। मगर रूस की जगह कोई नहीं।”
भारत की यह कूटनीतिक दुविधा नई नहीं है। शीत युद्ध के समय भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेता था, लेकिन जब अमेरिका ने 1971 में पाकिस्तान का साथ दिया, भारत ने सोवियत संघ के साथ करीबी बढ़ाई। आज स्थिति उलट है — अमेरिका रक्षा तकनीक और निवेश का बड़ा स्रोत है, मगर रूस भरोसेमंद रणनीतिक साथी।
ट्रंप का एक और बयान था, “मोदी मुझे पसंद करते हैं।” यह हल्के-फुल्के अंदाज़ में कहा गया, लेकिन राजनीति में शब्दों का वजन बहुत होता है। इस बयान ने भारत में बहस छेड़ दी — क्या प्रधानमंत्री ने वाकई कोई वादा किया है? क्या भारत की विदेश नीति अब पब्लिक रिलेशन का हिस्सा बन गई है?
कूटनीति में संतुलन ज़रूरी होता है। भारत अपने “रणनीतिक स्वायत्तता” के सिद्धांत पर कायम है — यानी न पूरी तरह अमेरिका के साथ, न रूस के खिलाफ़। मगर ट्रंप जैसे अनिश्चित स्वभाव वाले नेता के दौर में यह स्वायत्तता बनाए रखना कठिन हो गया है।
आर्थिक दृष्टि से भी यह संतुलन महँगा पड़ सकता है। ब्लूमबर्ग इकनॉमिक्स के अनुसार, अगर ट्रंप का टैरिफ़ जारी रहता है तो भारत का निर्यात 52 प्रतिशत तक घट सकता है और जीडीपी में 0.8 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। वहीं अगर रूस से तेल आयात रुकता है तो भारत का वार्षिक आयात बिल चार से छह अरब डॉलर तक बढ़ सकता है।
यानी दोनों दिशाओं में जोखिम है। अजय श्रीवास्तव के अनुसार, इस वर्ष अप्रैल से अगस्त तक भारत ने रूस से 19.8 अरब डॉलर का तेल आयात किया, जो पिछले वर्ष से 11 प्रतिशत कम है। वहीं अमेरिका से आयात लगभग दोगुना हो गया — 2.8 अरब डॉलर से बढ़कर पाँच अरब डॉलर। यह दिखाता है कि भारत धीरे-धीरे बैलेंस बना रहा है, लेकिन ट्रंप को शायद यह रफ़्तार पसंद नहीं।
भारत की नीति का सार यही है — “हम अपने हितों के अनुसार निर्णय लेंगे।” मगर यह कहना जितना आसान, निभाना उतना मुश्किल। ट्रंप की बयानबाज़ी से घरेलू राजनीति में हलचल होती है, विपक्ष सवाल उठाता है, और जनता में भ्रम फैलता है।
भारत को चाहिए कि वह स्पष्ट और आत्मविश्वास से अपनी विदेश नीति दुनिया के सामने रखे। उसे यह दिखाना होगा कि उसकी साझेदारी किसी दबाव की नहीं, बराबरी की है।
ट्रंप का भारत पर आरोप, उनकी हँसी और बयान — ये सब असल में अमेरिकी चुनावों का हिस्सा हैं। मगर भारत के लिए यह चुनाव नहीं, राष्ट्रहित का सवाल है।
इसलिए भारत को अब तय करना होगा — मौन रहना ही कूटनीति है, या सच्चाई कहना ही असली साहस।






