
Supreme Court judge Abhay S. Oka acknowledged a mistake in a 2016 verdict, stating that judges are also human and can make errors in judgment
सुप्रीम कोर्ट के जज अभय एस. ओका ने 2016 के एक फैसले में हुई गलती को स्वीकार करते हुए कहा कि जज भी इंसान हैं और उनसे भी फैसले में गलती हो सकती है
नई दिल्ली (शाह टाइम्स) सुप्रीम कोर्ट कोर्ट के जज अभय एस. ओका ने सोमवार को न्यायिक प्रक्रिया की मानवीय सीमाओं की ओर इशारा करते हुए कहा कि “जज भी इंसान हैं और उनसे भी गलतियां हो जाती हैं।” उन्होंने 2016 में बॉम्बे हाई कोर्ट में दिए अपने एक फैसले को उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया और स्वीकार किया कि उस फैसले में उनसे गलती हुई थी।
जस्टिस ओका ने यह स्वीकारोक्ति घरेलू हिंसा अधिनियम से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान दी। उन्होंने कहा कि न्यायिक प्रणाली एक सतत सीखने की प्रक्रिया है और न्यायाधीशों को भी समय-समय पर अपने फैसलों की समीक्षा करते रहना चाहिए।
2016 के फैसले की गलती का किया उल्लेख
जस्टिस ओका ने बताया कि जब वे बॉम्बे हाई कोर्ट में न्यायाधीश थे, तब उन्होंने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12(1) के तहत दायर एक आवेदन को निरस्त कर दिया था। अब उन्हें लगता है कि वह निर्णय उचित नहीं था। उन्होंने माना कि उस वक्त धारा 482 और 12(1) के कानूनी दायरे की सही व्याख्या नहीं हो पाई थी।
धारा 482 और 12(1) की व्याख्या पर बल
न्यायाधीश ओका ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत हाई कोर्ट को अधिकार है कि वह घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12(1) में दायर याचिका की कार्यवाही को रद्द कर सकता है, लेकिन इस अधिकार का प्रयोग बेहद सतर्कता से किया जाना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट किया कि धारा 12(1) पीड़ित महिलाओं को मुआवजे जैसी राहत के लिए मजिस्ट्रेट के पास जाने का अधिकार देती है।
घरेलू हिंसा अधिनियम है एक कल्याणकारी कानून
जस्टिस ओका ने यह भी कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 एक कल्याणकारी कानून है जिसका उद्देश्य पीड़ित महिलाओं को न्याय दिलाना है। इसलिए हाई कोर्ट को इस अधिनियम से जुड़े मामलों में हस्तक्षेप करते समय संयम बरतना चाहिए और यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी निर्णय कानून के मूल उद्देश्य को कमजोर न करे।
उच्च न्यायालयों को संयम बरतने की सलाह
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह भी कहा कि हाई कोर्ट को तभी हस्तक्षेप करना चाहिए जब मामला स्पष्ट रूप से कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग प्रतीत हो। अन्यथा, घरेलू हिंसा अधिनियम के उद्देश्यों को नुकसान पहुंच सकता है। पीठ ने कहा, “जब तक उच्च न्यायालय संयम नहीं दिखाएगा, तब तक इस कानून की प्रभावशीलता कायम नहीं रह सकती।”
इस टिप्पणी से यह साफ जाहिर होता है कि सुप्रीम कोर्ट न्यायिक पारदर्शिता और आत्मनिरीक्षण के सिद्धांतों को गंभीरता से ले रहा है, जिससे न्याय प्रणाली में लोगों का भरोसा और मजबूत हो।